"कराहती नदी की डायरी”
१५ जनवरी २०१०
बुधवार
मैं आगे यह सह न सकती!जिनकी रक्षा केलिए मैं दिन - रात, हर घंटे बेरोघटोक बहती थी, वे अब मेरे खातक बन चुके हैं।'मानव'- यह नाम सुनते ही अब मैं बेहोश पड जाती हूँ ।क्या करूँ? किससे शिकायत करूँ? पता नहीं ! मैं मृतप्राय हो चुकी हूँ। नहाने, धोने,सिंचाई करने, पूजा-पाठ से लेकर सभी संस्कार मेरे किनारे ही संपन्न होते थे। अब लोग मेरे किनारों पर कब्जा कर बडे-बडे कारखाने बना रहे हैं । मेरा स्वच्छ पानी लूटकर मूझे गंदा नाला बना रहे हैं। अब कोई मुझे पहचान न पावोगे ! मेरा रंग रूप सब बदल गया है । दिनों-दिन मेरी प्रदूषण की स्थिती गंभीर होती जा रही है । इसका कारणकार स्वार्थी मानव के बिना और कोई नहीं है। पानी लूटकर, कूडा-कचरा डालकर ,बडी मात्रा में रेत खनन करके मेरे साथ मानव छेड़-छाड़ कर रहे हैं l मेरे दिन गिने हुए हैं ।
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नव शैक्षिक वर्ष की शुभकामनाऎँ ।
ReplyDeleteकराहती नदी की डायरी, बनावट और भाषा दोनों तरीकों से रंगीन हैं।
सलाम..........
karahthi nadi namak dairy bahuth upayog pradh ho gaya. prakashji shukriya........... RAJESH
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