कवि कहते हैं कि अधिक सुख और दुख दोनों से भी दुख ही पाते हैं। मानव सुख की अधिकता ही नहीं बल्कि सुख की अधिकता भी सह नहीं सकेगा। अधिक सुख दुख ही देगा। इसलिए उसका बराबर बंटवारा हो जाना चाहिए। याने सुख-दुख के समन्वय से ही मानव जीवन आराम पा सकता है।
Wednesday, July 29, 2015
सुख-दुख कविता (व्याख्या भाग-2)
जग पीड़ित है अति-दुख से
जग पीड़ित रे अति-सुख से,
मानव-जग में बँट जाएँ
दुख सुख से औ’ सुख दुख से !
अविरत दुख है उत्पीड़न,
अविरत सुख भी उत्पीड़न;
दुख-सुख की निशा-दिवा में,
सोता-जगता जग-जीवन !
यह साँझ-उषा का आँगन,
आलिंगन विरह-मिलन का;
चिर हास-अश्रुमय आनन
रे इस मानव-जीवन का !
कवि कहते हैं कि अधिक सुख और दुख दोनों से भी दुख ही पाते हैं। मानव सुख की अधिकता ही नहीं बल्कि सुख की अधिकता भी सह नहीं सकेगा। अधिक सुख दुख ही देगा। इसलिए उसका बराबर बंटवारा हो जाना चाहिए। याने सुख-दुख के समन्वय से ही मानव जीवन आराम पा सकता है।
कवि
कहते हैं कि लगातार मिलनेवाले
सुख और दुख दोनों मानव को दुख
ही देते हैं। जिसप्रकार रात और दिन
बदलते ही रहते हैं , उसी
प्रकार मानव – जीवन में सुख
और दुख को बदलते रहना चाहिए। ऐसा होगा तो रात रूपी दुख में
मानव जीवन सोता रहेगा और दिन रूपी
सुख में जागता रहेगा। यहाँ कवि रात को
दुख का प्रतीक और दिन को सुख
का प्रतीक मानता है।
मानव
जीवन में हँसी और रुलाई दोनों
सदा रहते हैं। जैसे सबेरा
होता है, शाम होती
है, फिर सबेरा
होता है, वैसे ही जीवन में सुख
मिलते हैं, फिर
दुख,फिर सुख। इस
तरह सुख-दुख में
हँसते-रोते मानव जीवन आगे
बढ़ता है। सुख की हँसी और दुख
की रुलाई दोनों मानव जीवन
केलिए अनिवार्य होता है। यही
हँसना रोना तो वास्तव में मानव
का जीवन है या दुनिया का जीवन
है।
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VERY GOOD
ReplyDeletevery useful
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