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Friday, August 16, 2019

एक टिप्पणी - पुल बनी थी माँ।

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समकालीन हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर श्री.नरेन्द्र पुंडरीक की एक सुन्दर कविता है" पुल बनी थी माँ । इसमें अनाथ होने बुढापे की आहें समाहित किए गए हैं।
    कविता की पहली पंक्तियाँ यह बताती है कि माँ के हाथों में हम कितने सुरक्षित हैं। माँ प्रेम रूपी, सुरक्षा रूपी पुल बनती है और उस पर उनका जीवन भी सुरक्षित बेरोकटोक चलता रहता है। हरी-लाल बत्ती का उल्लेख इसका सूचक है कि माँ की छाया में इस तरह के नियमों का ही परवाह नहीं करना पड़ता है , क्योंकि उसकी तेज़ आँखें हम पर हैं और इसलिए यहाँ नियमों का पालन की भी आवश्यकता नहीं है। जैसे जैसे बेटे बढ़ते हैं और माँ बूढ़ी हो जाती है तब चिंता की दिशा में भी बदलाव आता है ।
बूढ़ी माँ की बात भी मानने लायक नहीं लगता । उनके विचार में तो वे सशक्त हैं ,पूर्ण हैं इसलिए बूढ़ों की बातें मानने की आवश्यकता नहीं है। इसी क्षण से शुरू होता है बूढ़े की बुरी हालत । माँ के सहारे लेकर चलनेवाले बेटों को माँ का संरक्षण बोझ बन जाता है । अब तक गर्व से सशक्त कहनेवाले उनको माँ का संरक्षण बहुत कठिन हो जाता है। अंत में वे उस भार को एक दूसरे के कंधों पर लादते हैं। प्रेम की मूर्ति माँ यह सह नहीं सकती। वे बच्चों की मुसीबत समझकर स्वयं बिछुड़ती हैं। यानी ईश्वर के घर चली जाती हैं। माँ के चले जाने के बाद बेटे यह पहचानते हैं कि माँ के बिना वे बेसहारे हैं।
    वर्तमान संदर्भ में यह कविता अधिक प्रासंगिक है । 'भोगे और फेंको' संस्कृति के गुलाम होती रही नई पीढ़ी को माता-पिता बोझ बन जाते हैं। उन्हें एक ही विचार है कि इस बोझ को किसी न किसी रूप में छोड दें। इसलिए ही हमारे समाज में वृद्ध मंदिरों की संख्या बढती जा रही है। निश्चय ही यह कविता हमें एक बार फिर सोचने के लिए बाध्य बना देती है
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9 comments:

  1. जी आपका यह प्रयत्न बिलकुल सराहनीय है

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  2. Thank you sir, it is very useful for my brother.

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  3. Thankyou so much whoever wrote this

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  4. बहुत सराहनीय है साहब।

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  5. I am an malayali very very thanks to write this

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  6. This comment has been removed by a blog administrator.

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  7. Thank you sir...👍🏻👍🏻

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